हमारे देश प्रदेश में और हमारे इलाके में बंदरों का, जिन्हें आजकल वानर महाराज कहलवाया जा रहा है, जबरदस्त उत्पात हो रहा है, ये महाराज बने ‘वानर’ खेत बगीचों से लेकर घरों और रसोईघरों को उजाड़ रहे हैं, बर्बाद कर रहे हैं, खाना और रोटी लेकर भाग रहे हैं, झपटमारी कर रहे हैं लोगों को काट रहे हैं।
ऐसे वक्त में हमारी अम्माजी के रूफटाप बगीचे, यानि की फुलवारी में तरह तरह के फूल हैं फल हैं, गुलाब की दो दर्जन किस्मों से लेकर गुलदावरी, बेला चमेली एकजोरा के खूबसूरत फूल हो रहे हैं, हरी मिर्च टमाटर से लेकर मूली प्याज, लहसुन सेम, मटर करेला जैसी सब्जियां हो रही हैं। और फलों में अमरूद, नींबू नाऱगी, वगैरह हो रहे हैं, लीची में बौर आ रहा है, छत पर गेहूं और दूसरे अनाज सूख पा रहे हैं, तो इसका क्रेडिट जाता है पोगो को, यानि कुत्ते को, जिसे हम पोगो कहते हैं।
वानर महाराजों के नुकसान को ना समझ लोग आसानी से समझ और जान नहीं सकते। हाल के इन कुछ सालों में इन वानर महाराजों ने किसानों बागबानों से लेकर आमलोगों का जीना दूभर कर रखा है। इनकी वजह से खेत बगीचों से लेकर रोजी रोटी ख़तरे में पड़ गई है। कई बार यह महिलाओं, बच्चों और कमजोऱों पर झपटते हैं उन्हें काट लेते हैं। ऐसी कई वारदात हो चुकी हैं और हो रही हैं। वैसे मुझे बंदरों से पूरी हमदर्दी है लेकिन जब बंदरों के रखवालों द्वारा एक तरफ तो बंदरों को अपना खास सगा वाला बताया जाता हो और दूसरी तरफ उनके रहने के ठिकानों, जंगलों को ठेके पर देकर उनका सफाया करवाया जा रहा है।
इन्हीं वानरों की प्रजाति के कुछ लोग इन महाराजो के बहुत हिमायती है और इसी को धर्म कर्म मानते हुए इनकी रक्षा में लगे हुए हैं। खैर यह उनका मानना है ज़रूर माने, लेकिन यह महाराज हमारे खेत खलिहानों, घरों रसोईघरों में घुसकर उत्पात न मचाएं बर्बादी न करें । हमारी रोजी-रोटी पर झपटा मारी न करें, यह हमारा मसला है।
अम्माजी की फुलवारी इसलिए बची हुई है फुलवारी की की हिफ़ाज़त के लिए कुत्ता है। यह कुत्ता वानर महाराज की फुलवारी में दाल गलने नहीं देता। वानर महाराज ने ज़रा सी हिमाक़त की तो यह कुत्ता उनको दौड़ा देता है, टांग पकड़कर घसीट लेता है। इसकी वजह से वानर महाराज आसपास के घरों बगीचे में भले ही उत्पात मचाएं उजाड़ करें बर्बादी करें, लेकिन हमारी हद में यानि के हमारे रूफटाप फुलवारी में आने की हिम्मत नहीं कर सकते।
तो आपको भी अगर इस वक्त (के) बंदरों से अपने खेत खलिहान बगीचों, घरों, और रसोईघरों को बचाना है,देश के अलग अलग रंग के बहुरंगी संस्कृति को, अलग अलग तरह के अनाजों को उनके खान-पान रहन सहन को इन उत्पाती मूर्ख वानरों से बचाना है तो असली डेमोक्रेसी वाले असली मीडिया जैसे वाचडाक यानि कुत्ते पालिए, जो आपको सिर्फ देसी ही मिलेंगे। विदेशों से आए अंग्रेजी कुत्ते मत पालिए जो ड्राइंग रूम में फ़ैलकर ऊंघते रहते हैं, या फिर टीवी चैनलों में बैठके आपके खेत खलिहानों बगीचों की दलाली खाते हों, तो कुत्ते पालिए, और उनका नाम कुछ भी रखिए ओगो, पोगो टोगो टाइप, पर भूलकर भी अंग्रेजी टाइप कुत्ते मत पालिए न कुत्तों का नाम अरवन, अमीशवा, पर रखें और न उन्हें घर का चौधरी माने और समझें। कुत्तों को कुत्ता रहने दें सुविधाओं का मोटा पैकेज देकर चरसिया न बनाएं।
तो बंधुओं इसी क्रम में रामचरित मानस का आदेश सुनिए, और यथायोग्य करिए।
नट मर्कट इव सबहिं नचावत…. राम गुसाईं
बकलम खुद, इस्लाम हुसैन, वरिष्ठ वाचडाग विशेषज्ञ.
माघ 2 गते, त्रयोदशी विक्रम संवत 2078
तद्नुसार 15 जनवरी 2022 ईस्वी.
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Islam Hussain, Mohammed Seemab Zaman ji मैं सोशल एक्टीविस्ट के साथ प्रैक्टिशनर भी रहा हूं, बहुत नजदीक से ग्राउंड लेबल के हालात से वाकिफ रहा हूं।1990 के आसपास से मैने अखबारनवीसी से थोड़ा किनारा करके एक इंस्टीट्यूशन बनाकर माइक्रोइंटरप्राइज डेवलपमेंट पर थोड़ा थोड़ा का शुरू किया, और 1999 के बाद माइक्रोफाइनेंस पर काम शुरू किया था। मैंने जब माइक्रोफाइनेंस पर काम काम शुरू किया था तब नार्थ इंडिया में माइक्रोफाइनेंस का इक्का-दुक्का इंटरवेंशन हुआ था। वह इंडिया में माइक्रोफाइनेंस का शुरुआती दौर था और हमने इसके लिए बहुत जद्दोजहद की थी। पालीसी और एक्जीक्यूशन के साथ साथ फील्ड में काम किया।उसके रिजल्ट भी मिले हजारों फैमिली मतक हम पहुंचे। 2005 को यूएनओ ने माइक्रोफाइनेंस ईयर डिक्लेयर किया था उस साल 2005 में माइक्रोफाइनेंस में एक्सीडेंट काम करने पर इंडिया के जिन 6 इंस्टिट्यूशन्स को माइक्रोफाइनेंस एक्सीलेंस अवार्ड एकार्ड दिया गया उसमें हमारा इंस्टीट्यूशन पहल नार्थ इंडिया का अकेला इंस्टीट्यूशन था। हमें यह अवार्ड इंडिया में यूएनडीपी की कंट्री हेड के हाथों मिला था। हालांकि हमारा इदारा छोटा था और हमारे रिसोर्स कम थे, फिर भी हमने 2014 तक करीब 10 हजार गरीब फैमिलीज के साथ काम किया था। हमारा इंटरवेंशन 20 करोड़ से ज़्यादा का था। उस दौर में लोग इस ख़ाकसार को उत्तराखंड का यूनूस कहते थे। प्रोफेसर यूनुस को नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले इंडिया में माइक्रोफाइनेंस पर जो पहला प्रोग्राम हुआ था जिसमें प्रो यूनूस आए थे, उस प्रोग्राम में मैं भी इंवाइटेड था। बाद में 2007 में जब प्रो मुहम्मद यूनुस साहब नोबेल प्राइज मिलने के बाद इंडिया में एक प्रोग्राम में आए तो अशोक होटल में मेरी उनसे मुलाकात और लम्बी बातचीत हुई थी। उस दौर में बहुत से काम धीरे धीरे हो रहे थे लेकिन 2014 में आई सरकार ने काम नहीं करने दिया।
दस पंद्रह साल पहले तक इसी को बेस बनाकर मैंने माइक्रोफाइनेंस पर BHU, IIT, DU जैसे Institutions में लैक्चर भी दिए हैं। आपकी दुआओं का तलबगार
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