Post of 1 November 2022

सरकार ने लैंसडौन के नाम बदलकर उसका नाम पुराने दौर का कालो डांडा करने का फैसला कर लिया है.

हांलाकि हम जानते हैं कि यह अंकिता के हत्यारों, सरकारी नौकरी बेच खाने वाले सफेदपोशों और भू कानून, मूल निवास जैसे ज्वलंत सवालों से ध्यान भटकाने का घटिया प्रयास है.

यह सही है कि से 19 वीं सदी में आबाद होने से पहले वह जगह ‘कालो डांडा’ ही कहलाती थी, पुराने लोगों ने सदियों पहले काले बादलों से ढकी इस चोटी को काला डांडा(काली चोटी ) नाम दिया होगा, पर उसे 1887 में वीरान जंगलों से गढ़वाल राईफल्स की स्थापना कर शानदार मिल्ट्री छावनी बनाने वाले हमारे पुराने शासक अंग्रेज और आइरिस ही थे, जिसे भारत के तत्कालिन वायसराय लार्ड लैंसडौन का नाम- लैंसडौन दिया गया.

एक इतिहासकार के रूप में मेरे पास जितने भी ब्रिटिश कालिन करीब दो सौ साल पुराने दस्तावेज हैं, उनमें सिवाय लैंसडौन के उनके द्वारा स्थापित किये गये किसी हिल स्टेशन या इलाके की स्थापना के बाद उनके पुराने नाम बदल कर उन्हें ईसाई या अंग्रेजी नाम देने का एक भी उदाहरण नहीं है.

मेरे शहर मसूरी को 1814-20 के बाद बसाने वाले ब्रिटिश फौज की बंगाल आर्मी के ज्यादातर अफसर आईरिस थे, जिसमें आयरलैंड निवासी फ्रेडरिक यंग प्रमुख था, उसने इस नये शहर को यहां के वीरान जंगलों और घाटियों में बहुतायत उगने वाले मन्सूर के पौधे( बाटनीकल नाम-Gariori an Palanesis ) के नाम पर रखा- ‘मसूरी’, मेरे बचपन तक लोग इसे मन्सूरी ही बोलते थे. मैने 27 साल पहले अपनी History book ‘मसूरी दस्तावेज:1815-1995’ में दस्तावेजी तथ्यों के आधार पर लिखा है कि हर बाजार और जगह का नाम पुराने ग्रामीणों के स्थानीय बोलचाल के नामों पर रखा गया था और कहीं पर अपने (अंग्रेजी) या ईसाई नाम थोपने की आज जैसी घटिया हरकत नहीं की गयी थी.

1842 में गोरे व्यापारी पीटर बैरेन द्वारा बसाये गये नैनीताल में कहां अंग्रेजी नाम घुसेडा गया, उसने स्थानीय प्राचीन नैना देवी मंदिर और अनेक तालों के ताल का सम्मान करते हुए इस नये शहर को नाम दिया- नैनीताल.

उत्तराखण्ड में अंग्रेजों द्वारा 1869 में दो फौजी छावनी- रानीखेत और चकरौता बसायी गयी, कुमाऊँ रेजिमेंट के लिए स्थापित ‘रानीखेत’ कत्यूरी राजा सुधार देव की रानी की याद में इसका पुराना नाम- रानीखेत और कर्नल ह्यूम की 55 वी रेजिमेंट के लिए स्थापित छावनी चकरौता स्थानीय नाम पर बसायी गयी.

दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों और आइरिसों ने अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हुए किसी नये शहर या छावनी को बसाते हुए उनपर अंग्रेजीपना या ईसाईयत नहीं थोपी, चाहते तो ऐसा कर सकते थे. और जो जगह उन्होने बनायी या स्थापित कर उउसे सरसब्ज कर हमको दे गये, उनका नाम अगर वे अंग्रेजी भी रख देते तो यह उनका नर्सेगिक अधिकार भी था, पर उन्होने स्थानीय लोक मान्यताओं का हमेशा सम्मान किया.

उन्होने गांव से विकसित शहर बनाने के बाद भी देहरादून, पौडी, अल्मोड़ा के प्राचीन नाम नहीं बदले. उन्होने कैप्टन यंग के द्वारा 1815 के बाद देहरादून में बसायी फौजी छावनी- गढी का नाम नहीं बदला, आज भी वह उसी नाम पर सरकारी फेहरिस्त शुदा है. अपने बंगलों, सडकों के नाम भी उन्होने ज्यादातर प्रकृति आधार पर रखे- ओक्स काटेज(स्थानीय पेड बांज), स्प्रिंग(पानी स्त्रोत) विला आदि. मेरे शहर में 19 वीं सदी के तीसरे दशक में एक अंग्रेज की बनायी कोठी का नाम आज भी Cloud End है, जिसके नाम पर यह इलाका पूरे देश के पर्यटन मानचित्र पर प्रसिद्ध है, अब इसमें बदलने को क्या हुआ?

उधर मुल्लों के देश पाकिस्तान ने आजतक हम हिंदुओं की प्राचीन वेदकालिन तक्षशिला, मौहन जोदड़ो, राम के बेटे लव और कुश के बसाये शहर लाहौर,कसूर और ननकानासाहिब का नाम नही बदला, इसलिए कि वे इतिहास और परम्पराओं का सम्मान करते हैं, पर यहां संघी सरकारें नाम बदल कर इतिहास का कचरा करने में लगी है.इनसे कोई पूछे कि तुमने (कांग्रेस सरकारों ने भी) उत्तराखण्ड में अंग्रेजों के बनायें हिलस्टेशनों और छावनियों में आजादी के बाद एक नयी सडक तक तो बनायी नहीं, फिर नाम बदलकर क्या हासिल करोगे?

याद रखना, यूरोप और विदेश पर आधारित उत्तराखण्ड पर्यटन का भठठा बैठेगा अंग्रेजी नाम बदलने के बाद, वे यहां अपने पूर्वजों का इतिहास ढूंढने आते हैं और हमारे पर्यटन को विदेशी करेन्सी दे जाते है.. कल जब उन्हे अपना अतीत नहीं मिलेगा, तो यहां कोई अंग्रेज, आयरलैंड वासी,यूरोपियन या विदेशी नहीं आने वाला..Taxil

(नीचे फोटो लगभग 1920: लैंसडौन में नायक दरबान सिहं नेगी को विक्टोरिया क्रास देते हुए अंग्रेज जनरल)
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Some comments on the Post

Parmod Pahwa नाम बदलने, झूठी शान चमकाने की मानसिकता सदैव कमज़ोर और कुंठित मानसिकता का परिचायक होती है. लाहौर में आज भी लक्ष्मी चौक है, जैन मंदिर रोड है, गंगाराम अस्पताल है, इस्लामाबाद में हरिपुरा थाना है ( वहाँ का मुख्य थाना ) कराची में गांधी गार्डन है

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Parmod Pahwa सर, पाकिस्तान सरकार ने लाहौर में शायद उस शादमान चौक का नाम बदल कर भगतसिंह चौक कर दिया है, जो 1931 में लाहौर जेल परिसर फांसी स्थल था, जहां भगतसिंह,राजगुरु, सुखदेव को फांसी हुई, सुना है लाहौर हाईकोर्ट ने उस कोर्ट रूम और चैम्बर का नाम भी भगतसिंह के नामपर कर दिया है, जहां भगतसिंह को फांसी की सजा दी गयी थी. पाकिस्तान अब भगतसिंह को अपनी आजादी की लडाई का हीरो मानता हैऋ

Mohammed Seemab Zaman, Jaiprakash Uttrakhandi साहेब, आप तो पत्रकार हैं। सत्तर साल से मुग़लों और अंग्रेज़ का बनाया शहर, सड़क, रेलवे सटेशन का नाम बदला गया मगर पहले क्यो नही यह सब बात लिखा? VT station का नाम बदल कर Shiva jee Terminus रखा गया, क्या उस वक्त इस पर आंदोलन चलाने की जरूरत नही थी। राजपथ पर हिटलर समर्थक सुभाष बोस की मूर्ती लगाने से क्या यूरोपियन, जर्मन पर्यटक का आना बढ जाये गा?
देखये यह सब पढे लिखे लोगो का शातिराना खेल है, यह कोई अंजाने मे इतिहास को नही बदला जा रहा है। खैर आज आप ने लिख दिया, यही क्या कम है।

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Mohammed Seemab Zaman जी, किसी भी शहर, गांव या जगह का नाम, चाहे मुगलकालिन हों या ब्रिटिशकालिन,वहां रहने वाले नागरिकों की हृदय में पीढियों से घर किए रहते है, इतना कि अगर ये नाम उनसे छीन लिए जायें तो उन्हे लगता है- अस्तित्व विहीन हो गये हैं.किसी आबादी या रहवासियों से उनकी जगह का ऐतिहासिक नाम छीन लेना एक किस्म की बर्बरता है, आक्रमण करने जैसा. जैसे लैसंडोन छावनी का केवल नामकरण भर था, बाकी अंग्रेजों ने उसे जंगल और वीराने को बरसों की मेहनत से आबाद शहर की शक्ल में बदला था, इसमें आजादी की बाद की सरकारों का धेले भर का योगदान न था. भाजपा सरकार नाम तो जरूर बदल रही है, पर जनता में उसे कोई स्वीकृति नहीं है.

Hitesh Singh Chauhan भाजपा और संघ के लोग अपने आपमें देश के लिए कोई कीर्तिमान या ऐसी उपलब्धि स्थापित करने में नाकामयाब रहे हैं जिसको गर्व से अपना बता सकें कुंठा से ग्रस्त मानसिक बीमार लोग इस में भरे पड़े हैं यदि सामने वाले की लकीर बड़ी हो तो उससे बड़ा बनने के लिए अपनी लकीर बड़ी करनी पड़ती है। इनके पैदा होने से लेकर आज तक इनके पास गर्व करने लायक और सर उठाकर चलने लायक ना तो कोई विषय है ना कोई आदमी है ना कोई विचार है और ना ही कोई कार्य है

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Hitesh Singh Chauhan शायद एक भी ऐसा भाजपाई हो, जो संस्कृत पाठशाला में पढा हो, मेरा दावा है कि अधिकतर कान्वेंट या सैंट ऐंजल टाईप पब्लिक स्कूलों में पढे निकलेंगे. एक समस्या यह है कि लैसंडोन के स्कूलों में पढे भाजपाई अपने पुराने शैक्षिक प्रमाणपत्रों, तहसील प्रमाणपत्रों का क्या करेंगे, जिसमें लिखा होगा- लैसंडोन..

Dhiraj Negi आपकी बात शतप्रतिशत तथ्यपूर्ण है। मैंने किसी अन्य पोस्ट पर भी नाम बदले जाने का विरोध किया है। लैंसडाऊन मेरे जिला के ऐसा नगर है जिसका नाम हमें गर्वित करता है। इस नाम से हमारा सैन्य इतिहास जुड़ा है।

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Dhiraj Negi जी, गढवाल रेजीमेंट की वजह से लैंसडौन का नाम इंग्लिश आर्मी हिस्ट्री की वैश्विक बेबसाइट पर है, साथ ही ब्रिटिश रक्षामंत्रालय के मुख्यालय में 20 वीं सदी के अंग्रेज आर्मी इतिहास के कई शिलापटों पर लैंसडौन (गढ़वाल) का नाम इंदराज है. ये सब अंर्तराष्ट्रीय ख्याति का इतिहास है, जो उत्तराखण्ड का नाम रोशन करता है.लैंसडौन का नाम हटते ही यह स्वर्णिम इतिहास धराशायी समझो.

Swami Sharma ये जाहिल कुछ कर नहीं सकते. पूछो तुमने अब तक क्या किया तो अगल बगल झांकते कहेंगे राम मंदिर, 370 और गूंगे हो जाएंगे .यह 1600 सदी में ले जाना चाहते हैं. केदार वाले नाराज काशी वाले नाराज बद्रीनाथ वाले नाराज. जनता को सड़को पर लाने का समय है और कोई इलाज नहीं है.

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Swami Sharma मेरे एक लेख का लगभग 35 साल पुराना एक शीर्षक इन पर फिट बैठता है..”21 वीं की डाल पर लटके चौथी सदी के लंगूर.. “

Somwari Lal Uniyal उत्तराखंडी जी आपके तथ्यात्मक विश्लेषण से पूर्णरूपेण सहमत हूं.

Prerna Sudha ये लोग नाम बदलने में कामयाब कैसे हो जाते हैं? क्या जनता की राय नहीं ली जानी चाहिए इसके लिए?

  • Jaiprakash Uttrakhandi, Prerna Sudhaजनता की राय का सम्मान एक किताबी बात है, पर व्यवहार में ऐसा कभी देखा नहीं गया. दूसरा आज के दौर में सही सवालों को लेकर जनता में प्रतिरोध की प्रवृत्ति लगातार कम हो रही है.