FB Post of 30-01-2022

क्या धार्मिक सद्भाव की कोशिश की वजह से गांधी जी की शहादत हुई ?गांधी के हत्यारे गांधी के जिन विचारों और सोच के विरोधी थे, और उन्हें अपने दकियानूसी रास्ते से हटाना चाहते थे, उसमें महिला स्वतंत्रता, जाति प्रथा का विरोध और हिन्दू मुस्लिम सिख धार्मिक सौहार्द व सद्भाव था शामिल था। पाकिस्तान का मुद्दा बाद में ज़बरदस्ती जोड़ा गया था। क्योंकि इस मुद्दे के पैदा होने से पहले गांधी जी के कत्ल की पांच कोशिश हो चुकीं थीं।

नोआखाली से लौटने के बाद दिल्ली और आसपास और पूरे मुल्क में धार्मिक सौहार्द कायम रखना सबसे बड़ा काम हो गया था। इसी के लिए गांधी जी ने 13-18 जनवरी तक अपना आखिरी उपवास किया था। जिसका सार्थक परिणाम निकला था। दिल्ली में सौहार्द और सद्भाव के की कोशिश के सिलसिले में गांधीजी अपनी शहादत से तीन दिन पहले जिस किसी आखिरी धार्मिक स्थल/इबादत गाह गए वह महरौली दिल्ली की हज़रत बख़्तियार काकी की दरगाह थी। गांधीजी वहां क्यों गए थे और उसका क्या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी, और उसका भारतीय गंगा जमना तहज़ीब में क्या महत्व है यह इस लेख में दिया गया है, आइए जानते हैं पूरा पसमंजर।

उत्तर भारत में बाबा फरीद‌ नाम से अनेक संस्थाएं काम कर रही हैं, स्कूल से लेकर बड़े बड़े इंस्टीट्यूशन इस नाम से चल रहे हैं। बाबा फरीद मुस्लिम सूफी चिश्तिया सिलसिले के मश्हूर सूफी मास्टर रहे हैं। उनके ख़लीफा/शिष्य दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे इलाही जिनकी दरगाह हर कौमों मिल्लत के लिए खुली है और जहां मनाया जाने वाला बसंत का त्यौहार और दीपावली की जगमगाहट राष्ट्रीय ख़बर बनती है।

लोगों को जानकर हैरत होगी कि बाबा फरीद के नाम पर इंस्टीट्यूशन्स चलाने वाले मुसलमान नहीं सिख या पंजाबी मूल के लोग हैं।

अब यह दूसरा आश्चर्य होगा कि ऐसे समय में जबकि एक वर्ग मुसलमानों और सिखों के बीच दरार डालने का लगातार कोशिश करता है तो यह सिखों को एक मुस्लिम सूफी के नाम पर संस्थाएं चलाने की क्या पड़ी है।

असल में बारहवीं सदी के आखिरी हिस्से में पैदा हुए बाबा फरीद मुसलमानों की उस महान सूफी परम्परा का हिस्सा हैं जिसने दक्षिण एशिया में इंसानियत और मुहब्बत मशाल को आगे बढ़ाया। उनकी वाणी ऐसी मीठी थी कि उसने उत्तर भारत ख़ासकर पंजाब की मिट्टी को इश्को मुहब्बत से सराबोर कर दिया‌। बाबा फरीद के डेढ़ पौने दो सदी बाद सिखों के प्रथम गुरु नानक ने बाबा फरीद की इस वाणी को समझा और अपनी ‘उदासियों’ में उसे अपने परमेश्वर के प्रेम के प्रचार में इनका इस्तेमाल किया। 1604 में जब सिखों के आदिग्रन्थ गुरु श्री ग्रंथ साहिब का पहला प्रकाशोत्सव हुआ तो उसमें बाबा फरीद के 112 श्लोक व 4 शबद में भी दर्ज हुए।

भारतीय सूफी बाबा फरीद की रचनाएं सिखों के आदिग्रन्थ में इसलिए शामिल होती हैं कि उनकी वाणी इन्सानियत के हक में इश्को मुहब्बत से भरी हुई थी। बाबा फरीद के नाम से गंज-ए-शकर लफ़्ज़ भी जुड़ा है, इसी शक्कर के मीठेपन और मुहब्बत ओ इश्क का पैग़ाम अब सिख बाबा अक़ीदत से फरीद के नाम पर बांट रहे हैं।

यह अपने आप में महत्वपूर्ण है कि सिख तीर्थ यात्री पाकिस्तान में ननकाना साहिब और कीरतपुर के साथ साथ पाकपट्टन स्थित बाबा फरीद की दरगाह की भी यात्रा करते हैं। इस तरह बाबा फरीद भारत की मिली-जुली गंगा जमना तहज़ीब के अहम किरदार हैं। यूं तो सिख सभी सूफ़ी संतो की का बहुत एहतेराम करते हैं और सिख परम्परा में बाबा फरीद के जुड़े हर रिश्ते को अहमियत देते है।

हज़रत बख़्तियार काकी जो कि बाबा फरीद के पीरोमुर्शिद/गुरु हैं, उनकी दरगाह महरौली दिल्ली में है, हज़रत काकी, बाबा फरीद से ख़ास मुहब्बत रखते थे। दिल्ली में ही बाबा फरीद के महबूब ख़लीफा/शिष्य हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे इलाही की दरगाह है जबकि उनके लाडले भांजे और ख़लीफ़ा/शिष्य हज़रत अलाउद्दीन साबिर पाक की दरगाह कलियर रुड़की उत्तराखंड में है, यहां पंजाब से हजारों तीर्थयात्री कलियर आते हैं, और पंजाब सरकार साबिर पाक के हर सालाना उर्स में दरगाह पर पंजाब पुलिस के बैंड के साथ सरकारी चादर चढ़ाने की रस्म अदा करती है।

बाबा फरीद के दादा पीर शेखुल हिंद ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ शेख मुईनुद्दीन चिश्ती भी सिख परम्परा में बहुत सम्मानित हैं। ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह अजमेर में जो फानूस लगी है वो दरबार साहब/स्वर्ण मंदिर से भेजी गई है, जो यह बताती है कि सिखी का सूफियों से कितना नज़दीक सम्बन्ध है। दरगाहों और गुरुघरों के तोशखानों में ऐसी बहुत सी धरोहर सहेजी गई हैं। दरबार साहब खुद में कौमी यकजहती का अहम मरकज़ है। जिसकी नींव सूफ़ी मियां मीर के हाथों रखी गई थी। मियां मीर के वंशजो के परिवार के करीब 200 लोग गुरु नानक देव जी की मक्का मदीना व बगदाद की यात्रा जिसे सिखी में उदासी कहा जाता है, के दौरान उनसे प्रभावित होकर पंजाब में आकर बस गए थे। इन्ही के सिलसिले में पीर भूरे शाह, शाह हुसैन जैसे सूफी हुए।

इसी कड़ी में सूफी पीर बुद्धू शाह भी थे, जिनका असली नाम बदरूदीन था। जिनके बुजुर्ग शाह कयूम कादरी 15वीं शताब्दी में बगदाद से आकर सढोरा में बस गए थे। इन्ही पीर बुद्धू शाह ने 1688 में पाउंटा के पास भंगाणी की लड़ाई में पहाड़ी राजाओं के ख़िलाफ़ गुरु गोविंद सिंह जी का साथ दिया था, इस मोर्चे में गुरु जी को जीत मिली थी, पर पीर बुद्धू शाह के दो बेटे अशरफ शाह और मोहम्मद शाह व भाई भूरे शाह सहित उनके 500 मुरीद/साथी शहीद हो गए थे। सिखों ने मान-सम्मान करके पीर बुद्धू शाह और उनके अनुयायियों को सढौरा में बसा दिया था। 1704 में सरहिंद के सूबेदार के हुक्म से सढौरा के दरोगा उस्मान खान ने पीर बुद्धू शाह को शहीद कर दिया था। बाद के सालों में सिखों ने पीर बुद्धू शाह के परिवार को बहुत इज्जत से नवाजा था।

दक्षिण एशिया के इस मुहब्बत के ताने-बाने से गांधी जी बख़ूबी वाक़िफ़ थे। वो मुल्क की यकजहती और अमन के लिए धार्मिक सौहार्द के सबसे बड़े पैरोकार थे। जंगे आज़ादी के दौरान गांधीजी ने न सिर्फ सूफियों के मुहब्बत के पैगाम का सहारा लिया बल्कि सूफियों के आली मकाम हज़रत इमाम हसन की मिसाली शहादत को इंसानियत और व्यक्तिगत आज़ादी का उरूज़ बताया था।

यहां यह बताना बहुत ज़रूरी है अधिकांश सूफी सिलसिले जिसमें बाबा फरीद का चिश्तिया सिलसिला भी शामिल है, अपना सम्बन्ध कर्बला में शहीद हुए हज़रत हुसैन से जोड़ते हैं। चिश्ती सूफी अपने को हज़रत हुसैन का ही वारिस बताते हैं।

बंटवारे के वक्त जब इन्हीं बाबा फरीद के पीरोमुर्शिद हज़रत ख़्वाजा बख़्तियार काकी की दरगाह पर और दरगाही मस्जिद में जब कुछ स्थानीय उपद्रवियों ने तोड़फोड़ कर दी तो गांधीजी को बहुत दुख हुआ। जो उन दिनों नोआखाली से लौटने के बाद दिल्ली और आसपास हिन्दू मुसलमानों में सौहार्द बनाने के लिए लगातार दोनों समुदायों से मिल रहे थे, और उन्हें समझा रहे थे। वह चाहते थे कि ऐसी अक़ीदत की जगह को जिसने भी नुक़सान पहुंचाया है वह इसकी मरम्मत करे।

हज़रत बख़्तियार काकी की दरगाह हिन्दू मुस्लिम एकता के एक रूप में मनाए जाने वाले प्रसिद्ध मेले फूल वालों की सैर के लिए भी मशहूर थी। यह मेला मुगल बादशाह अकबर शाह दोयम की बेगम की मन्नत पूरी होने के वक्त सन 1815 से हो रहा था। जब मुग़ल बादशाह की बेगम ने अपने बेटे की सलामती की मन्नत पूरी होने पर भगवान कृष्ण की बहिन योगमाया देवी के मंदिर में पंखा चढ़ाया था, और हज़रत बख़्तियार काकी की दरगाह में फूलों की चादर चढ़ाई थी। हालांकि अंग्रेजों ने हिन्दू मुस्लिम यकजहती के इस मेले को 1942 में बंद करा दिया था, लेकिन लोग जानते थे और यह मेला चाहते थे। पर अंग्रेजी हुकूमत और उनके एजेंटों को न तो यह परम्परा तब पसंद थी और न अब पसंद आती है। बाद में यह मेला नेहरू जी ने फिर शुरू करवाया जो आज भी दीवाली से पहले अक्टूबर/नवम्बर में होता है।

गांधी जी अपनी शहादत से तीन दिन पहले 27 जनवरी 1948 को गांधीजी बिरला हाउस से करीब 11 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध सूफी दरग़ाह हज़रत बख़्तियार काकी की दरगाह की ओर चले, जहां पर जो कुछ उपद्रवियों ने दरगाह और मस्जिद को जो नुक़सान पहुंचाया था कि उसको देखें और उसकी मरम्मत कराने के लिए लोगों को राजी कर सकें। दरगा़ह हज़रत काकी की अहमियत इसलिए भी थी कि हज़रत बख़्तियार काकी मश्हूर और दुनिया के जाने माने सूफ़ी हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती के ख़लीफा/शिष्य और हज़रत बाबा फरीद जैसी अज़ीमुश्शान हस्ती के पीरो-मुर्शिद/गुरु थे।

दिल्ली में हो रही अहिंसा और उपद्रव के खिलाफ गांधी जी की ज़िन्दगी का आख़िरी 6 दिनी उपवास 18 जनवरी को इस शर्त पर ख़त्म हुआ था, कि हिन्दू और मुसलमान आपस में सौहार्द से रहेंगे और हिन्दू समुदाय के उपद्रवियों ने जिन मस्जिदों और दरगाहों को नुक़सान पहुंचाया है उसका पश्चाताप करते हुए मस्जिद दरगाहों की मरम्मत के करेंगे, और मस्जिदों को वापस लौटाएंगे। इसी क्रम में दिल्ली की करीब 117 मस्जिदों को वापस मुसलमानों के हवाले किया गया था।

गांधी जी के आवाहन पर यह उस समय के जागरूक हिन्दू समाज की बहुत बड़ी पहल थी, इसको हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए था। लेकिन उसको अपेक्षित महत्व नहीं मिला जिसके बूते मुसलमानों में देश के प्रति विश्वास पैदा हुआ था और पाकिस्तान जाते हुए काफ़िले रुक गए थे। क्या यह बड़ी वजह नहीं हो सकती नफरतियों के इस कुकर्म की। आज के जानबूझकर बिगाड़े जा रहे हालात को देखकर क्या यह सही नहीं लगता ?

यदि तीन दिन बाद गांधी जी शहादत नहीं हुई होती तो गांधीजी के उपवास के बाद हिन्दू समाज की यह पहल आज़ाद भारत में गंगा जमना तहज़ीब की सबसे बड़ी मिसाल मानी जाती, और वह इसी रूप में मनाई जाती। ऐसे समय जब इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर धार्मिक सद्भाव मज़हबी प्यार मुहब्बत को ख़त्म करने की ख़तरनाक कोशिशें हो रही हों तो, अमनो अमान की राह पर चलने वालों का यह फ़र्ज़ बन जाता है कि उन एतिहासिक सुबूतों को देश के सामने लाएं जिससे यह देश भाईचारे से आगे तरक़्क़ी कर सके न कि मज़हबी नफरतों से अपना भविष्य बिगाड़े। गांधी जी की जिंदगी के आखिरी दिन भी इसी कौमी यकजहती के लिए लगे थे, जिसे आने वाली पीढ़ी को को समझना होगा।

Islam Hussain (लेखक पत्रकार के रूप में 1976 से सक्रिय रहने के साथ गांधी विचार की शीर्ष संस्था अखिल भारतीय सर्व सेवा संघ की राज्य इकाई उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल के अध्यक्ष हैं)
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Some comments on the Post

Parmod Pahwa मेरा अनुमान है कि गांधी जी की हत्या के पीछे एक या मुख्य कारण विभाजन को निरस्त करने की किसी गोपनीय सहमति थी क्योंकि उधर जिन्ना और लियाकत अली खान के अतिरिक्त फातिमा जिन्ना को भी कत्ल किया गया था और ये तीनों महात्मा गांधी का बहुत एहतराम भी करते थे तथा राजदार भी थे🙏

  • Junaid Raza, Parmod Pahwa सर गाँधी के कातिल नहीं चाहते कि भारत में कौमी एकता हो।

Mohammed Seemab Zaman बहुत शांदार लिखा है। यह हम को नही मालूम था कि सिख ग्रंथ मे बाबा फ़रीद गंज शकर के 112 श्लोक और 4 शब्द हैं। दो साल पहले करतार साहेब के खूलने के वक्त मालूम हुआ के गुरू जी 6 साल बग़दाद मे रहे और रोज़ सुबह मे अबदूल क़ादिर जिलानी रहमतुल्लाह के मज़ार पर जाते थे।यह भी नही मालूम था के मरने के तीन दिन पहले गॉधी जी बख्तयार काकी रहमतुल्लाह के मज़ार पर गये थे। यह भी नही मालूम था कि साबिर कलेर शरीफ नेजामउद्दीन औलिया के भॉंजा हैं। हम दिल्ली मे निजेमऊद्दीन औलिया की मॉ-बहन के मज़ार पर जा कर एक बार फातेहा पढा है। मॉ और बहन को वह बहुत मानते थे।आप के इस पोस्ट को हम अपने zamaniyat .com पर डाले गें।

Ashok Sharan आप ने अपने लेख मे बहुत अच्छी जानकारी दी है। ऐसी जानकारियां गुमनामी के पन्नो मे गुम है।

Mahesh Joshi यह जानकारी देने के लिए आपका साधुवाद बड़े भाई.

Prabhat Upreti ज्बरदस्त धन्यवाद जानकारी के लिए वाह.

पुष्पा बृजवाल पेशल बहुत सुंदर रचना रोचक बधाइयां आपको!

सरोज ‘आनंद’ नमन

पार्थ जी बहुत ही सराहनीय और बेहतरी लिखा जी जय हो.

Harish C Deoradi बढिया लेख.

Akhilesh Jyotishi जय हो