दिल्ली 7 अगस्त 2020
“बाबरी मस्जिद का ताला राजीव गांधी के कहने पर खुलवाए जाने और इसका इस्तेमाल शाह बानो मामले (मुस्लिम तुष्टीकरण) बनाम राम मंदिर करने की बात सरासर झूठ है. सच तो ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री को एक फ़रवरी, 1986, को अयोध्या में जो हुआ उसका इल्म तक नहीं था और अरुण नेहरू को मंत्री पद से ड्रॉप किए जाने की यही वजह थी.”
ये बात राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में तत्कालीन संयुक्त सचिव और दून स्कूल में उनके जूनियर रहे पूर्व आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह ने बीबीसी से एक ख़ास बातचीत में कही.
एक फ़रवरी, 1986 को ज़िला न्यायाधीश केएम पांडेय ने महज़ एक दिन पहले यानी 31 जनवरी 1986, को दाख़िल की गई एक अपील पर सुनवाई करते हुए तक़रीबन 37 साल से बंद पड़ी बाबरी मस्जिद का गेट खुलवा दिया था.
धारणा है कि राजीव गांधी की सरकार ने (तब उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार थी) बाबरी मस्जिद का ताला इसलिए खुलवाया था क्योंकि उसने मुस्लिम तलाक़शुदा महिला शाह बानो के मामले को संसद से क़ानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के गुज़ारा भत्ता पर दिए गए फ़ैसले को उलट दिया था. इस पूरे मामले को कांग्रेस की राजनीतिक सौदेबाज़ी बताया जाता है.
हालांकि वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं कि शाहबानो मामले में क़ानून (मुस्लिम तुष्टीकरण) के एवज़ में हिंदुओं को ख़ुश करने के लिए विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाए जाने की बात बिल्कुल ग़लत है.
वो कहते हैं, “एक फ़रवरी 1986 को अरुण नेहरू उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ लखनऊ में मौजूद थे.”
एमजे अकबर का रोल?
राजीव गांधी सरकार ने मई, 1986 में मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) क़ानून लागू किया था. ये क़ानून 23 अप्रैल 1985, को शाह बानो मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को निरस्त करने के लिए लाया गया था.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा-125 के तहत अलग हुई या तलाक़शुदा बीबी शौहर से भरन-पोषण के लिए पैसे माँग सकती है, मुसलमानों पर भी लागू होता है. अदालत ने कहा था कि सेक्शन-125 और मुस्लिम पर्सनल क़ानून में किसी तरह का कोई द्वंद नहीं है.
वजाहत हबीबुल्लाह ने बीबीसी से अपनी उस बात को भी दोहराया जिसमें उन्होंने दावा किया था कि शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को क़ानून लाकर बदलने की सलाह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को नरेंद्र मोदी सरकार में पूर्व विदेश राज्य मंत्री और वर्तमान राज्यसभा सांसद एमजे अकबर ने दी थी.
एमजे अकबर तब बिहार के किशनगंज से कांग्रेस पार्टी के सांसद थे. भारत के कई बड़े समाचारपत्रों में छपे वजाहत हबीबुल्लाह के इस दावे का पूर्व विदेश राज्य मंत्री ने आज तक खंडन नहीं किया है.
नेहरू-गांधी परिवार के कई सदस्यों को क़रीब से जानने वाले वजाहत हबीबुल्लाह के राजीव गांधी के साथ बिताए समय के संस्मरण जल्द ही एक किताब की शक्ल में प्रकाशित होनेवाला है.
अयोध्या मामले पर वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं, “जल्द ही गुजरात के दौरे पर जाते हुए मैंने प्रधानमंत्री से बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने की बात उठाई जिसपर उन्होंने कहा कि उन्हें मामले की जानकारी तो अदालत का आदेश आ जाने के बाद हुई और अरुण नेहरू ने उनसे किसी तरह का कोई सलाह-मशविरा नहीं किया था.”
अरुण नेहरू राजीव गांधी सरकार में तब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री थे.
हबीबुल्लाह याद करते हैं, ”यही वजह थी नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य और ‘हेवीवेट मंत्री’ समझे जाने वाले अरुण नेहरू का मंत्रालय छिनने की. लोग उसका मतलब रक्षा सौदों और दूसरे मामलों से जोड़ते रख सकते हैं.”
हालांकि हबीबुल्लाह मानते हैं कि शाह बानो गुज़ारा भत्ता का मामला हिंदू-मुस्लिम मुद्दे में तब्दील हो गया था.
अंग्रेज़ी अख़बार ‘द स्टेट्समैन’ में पूरे मामले पर रिपोर्ट करते हुए नीरजा चौधरी ने उस समय लिखा था, “चुनावी फ़ायदे के लिए सरकार जिस तरह से दोनों समुदायों के तुष्टीकरण की नीति को अपनाने की कोशिश कर रही है उसकी काट ढूंढ पाना बहुत ही मुश्किल होगा.”
नीरजा चौधरी ने इस मामले पर लगातार रिपोर्टिंग की थी.
1984 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 49 प्रतिशत वोट मिले थे और 404 सीटें हासिल हुई थी जबकि बीजेपी मात्र आठ फ़ीसद वोटों पर सिमट गई थी.
‘स्क्रोल’ नामक वेबसाइट को दिए गए एक साक्षात्कार में केरल के मौजूदा राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने दावा किया था कि राजीव गांधी को नया क़ानून लाने के लिए कांग्रेस की नेता नजमा हेप्तुल्लाह ने राज़ी किया था.
नजमा हेप्तुल्लाह बाद में बीजेपी में शामिल हो गई थीं. आरिफ़ मोहम्मद ख़ान भी बाद में बीजेपी में शामिल हो गए थे.
मध्य प्रेदश के पूर्व मुख्यमंत्री और गांधी-नेहरू परिवार के क़रीबी रहे कांग्रेस नेता कमलनाथ ने चंद दिनों पहले ही बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने में राजीव गांधी की भूमिका थी.
राजीव गांधी पर दबाव?
बीबीसी के पूर्व संवाददाता और अयोध्या से जुड़े मामलों को बेहद क़रीब से देखनेवाले रामदत्त त्रिपाठी मानते हैं कि मुस्लिम तुष्टीकरण हो रहा जैसी भावना हिंदू समाज के एक बड़े वर्ग के मन में पैदा हो गई थी. वो कहते हैं कि बाबरी मस्जिद मामले में राजीव गांधी सरकार पर कई-तरफ़ से दबाव थे.
उनके अनुसार शंकराचार्य स्वरूपानंद राम मंदिर मामले पर किसी तरह के फ़ैसले के लिए दबाव बना रहे थे और रामचंद्र परमहंस की आत्महत्या की धमकी माथे पर तलवार की तरह लटक रही थी.
रामचंद्र परमहंस ने धमकी दी थी कि अगर अगले साल की रामनवमी तक ‘जन्मस्थान’ का ताला न खोला गया तो वो आत्मदाह कर लेंगे.
बुधवार (पाँच अगस्त, 2020) को अयोध्या में हुए कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय स्वंयसेवक प्रमुख मोहन भागवत ने रामचंद्र परमहंस को अपने भाषण के दौरान याद भी किया था.
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद 1948 में बनी राम राज्य परिषद के अध्यक्ष रहे हैं. 1952 के उसके बाद के कुछ चुनावों में मामूली सफलता हासिल करने वाले उनके राजनीतिक संगठन ने स्थापना के बाद राम जन्मभूमि के मुद्दे पर कार्यक्रम भी किए थे. हालांकि उनका दल बाद में जनसंघ में विलय हो गया था लेकिन स्वामी स्वरूपानंद कांग्रेस के क़रीबी माने जाते हैं.
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि उसी समय फ़ैज़ाबाद के एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र ने जनवरी 28, 1986 को अदालत में गेट खोलने की माँग लेकर अर्ज़ी दाख़िल कर दी जिसे जज ने ये कहकर ख़ारिज कर दिया था कि केस से जुड़े सारे क़ाग़ज़ात हाई कोर्ट में पड़े हैं जिसे देखे बिना इसपर किसी तरह का फ़ैसला लेना मुश्किल है.
उमेश चंद्र ने इसके ख़िलाफ़ 31 जनवरी, 1986 को ज़िला न्यायाधीश के सामने अपील कर दी और जज केएम पांडेय ने अगले दिन ही फ़ैसला सुना दिया.
फ़ैज़ाबाद निवासी और बाबरी मस्जिद मामले के एक पैरोकार के मामले से जुड़े नामज़द व्यक्ति ख़ालिक़ अहमद ख़ान का कहना है कि उमेश चंद्र विश्व हिंदू परिषद के क़रीबी थे.
रामदत्त त्रिपाठी तो अर्ज़ी की ड्राफ़्टिंग तक एक ऐसे वकील के यहां किए जाने की बात कहते हैं जो लंबे समय से विवादित स्थल के केस हिंदू पक्ष की तरफ़ से देखते रहे थे.
1984 के चुनावों में आरएसएस के राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को मात्र दो सीटें मिली थीं और अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी सरीखे नेता चुनाव हार गए थे.
कई जगहों पर छपे लेख में पूर्व जज केएम पांडेय के हवाले से कहा गया है कि फ़ैसले को लेकर उनके सामने कई संकेत उभरे थे, जिसमें उन्होंने उस दिन कोर्ट परिसर में मौजूद एक बंदर का भी ज़िक्र किया है. मगर ये भी रिकॉर्ड में दर्ज है कि ज़िला जज ने स्थानीय प्रशासन से क़ानून-व्यवस्था को लेकर राय पूछी थी जिसपर उन्हें आश्वस्त किया गया था कि ताला खोले जाने पर उसमें किसी तरह की कोई गड़बड़ी नहीं होगी. बाद में जज केएम पांडेय ने अपनी आत्मकथा में भी बंदर का ज़िक्र किया था.
विश्लेषक मानते हैं कि दशकों से अदालत में लंबित इतने विस्फोटक मामले में फ़ैज़ाबाद प्रशासन अपने बल-बूते इतना बड़ा निर्णय नहीं ले सकता था जबतक कि ऊपर से ऑर्डर न मिले.
दिसंबर 23, 1949 में मस्जिद में ग़ैर-क़ानूनी तौर पर मूर्ति रखे जाने के बाद से उसका ताला बंद था और मामला हाई कोर्ट में लंबित था.
फ़ैज़ाबाद ज़िला जज के फ़ैसले पर लखनऊ हाई कोर्ट के स्पेशल बेंच ने साल 2010 के अपने निर्णय में कड़ी आपत्ति जताई थी और इसे न सिर्फ़ ग़ैर-क़ानूनी बताया था बल्कि यहां तक कहा था कि 1 फ़रवरी, 1986 को लिया गया निर्णय 6 दिसंबर, 1992 को हुए मस्जिद विध्वंस की शुरुआत थी.
उस समय राजीव गांधी के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे और शाहबानो बिल का विरोध करने के कारण उस समय पार्टी के प्रगतिशील मुसलमान चेहरा बनकर उभरे आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) बिल को 25 फ़रवरी, 1986, में संसद में पेश किए जाने के समय का ज़िक्र करते हुए अपने लेख में इस मामले में ‘डील की बात’ का दावा किया है.
अंगेज़ी अख़बार ‘द हिन्दुस्तान टाईम्स’ में छपे लेख में कहा गया है, “पीएम ने जनवरी 1986 के दूसरे सप्ताह में ऐलान कर दिया था कि पर्सनल लॉ बोर्ड (मुस्लिम) से इस बात पर सहमति बन गई है कि शीतकालीन सत्र में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को उलटने वाला एक क़ानून पेश किया जाएगा. ये सेशन 5 फ़रवरी, 1986 से शुरू हो रहा था. इस घोषणा को लेकर इस क़दर विरोध हुआ कि सरकार शाह बानो मामले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए किसी बैलेंसिंग एक्ट (काट) को लेकर सोचने लगी और इस सिलसिले में अयोध्या सामने था, जहां केंद्र सरकार के हुक्म पर उत्तर प्रदेश हुकूमत ने विवादित स्थल का ताला खुलवाने का इंतज़ाम किया.”
उस समय के एकमात्र टेलीवीज़न चैनल दूरदर्शन पर इसे दिखाए जाने को लेकर भी बड़े सवाल उठे थे और कहा गया था कि ताला खुलने की घटना को फ़ौरन सरकारी माध्यम पर प्रसारण किए जाने का मतलब है कि केंद्र सरकार को पूरी घटना की ख़बर पहले से थी.
फ़ैसले के 40 मिनट बाद ही उस पर अमल
फ़ैज़ाबाद ज़िला जज ने शाम 4:20 पर अपना फ़ैसला सुनाया और ठीक 40 मिनट बाद शाम 5:01 पर ताला खोल दिया गया और दूरदर्शन की पूरी टीम पहले से मौजूद थी उस घटना को फ़िल्माने के लिए जिसे शाम में समाचार में दिखाया गया.
ज़िला जज ने भी सभी पक्षों को अपने फ़ैसले की कॉपी भी नहीं दी थी और जज के दफ़्तर से बाबरी मस्जिद की दूरी तक़रीबन सात किलोमीटर है.
यहां तक कि ताले की चाबी जिस सराकारी अधिकारी के पास थी, न उसको ख़बर की गई और न ही उसके आने का इंतज़ार किया गया और ताला को तोड़ दिया गया था.
बाद में कांग्रेस की सरकार ने ज़िला जज के फ़ैसले को ऊपर की अदालत में चुनौती नहीं दी, इससे भी लोगों को कांग्रेस की नीयत पर शक होता है.
लेखक और राजनीतिक विश्लेषक रशीद क़िदवई कहते हैं कि इस मुद्दे पर तत्कालीन केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री को कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.
उस समय के संसद की पूरी कार्यवाही को याद करते हुए रशीद क़िदवई कहते है कि तब कांग्रेस के ही आरिफ़ मोहम्मद ख़ान और ज़िया उर रहमान अंसारी पूरे मामले में दो अलग-अलग तरफ़ खड़े थे.
ज़िया उर रहमान अंसारी के बेटे फ़सीउर रहमान ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ़ डेस्टिनी: ज़िया उर रहमान अंसारी – ए लाइफ़‘ में ज़िक्र किया है कि उनके पिता ने राजीव गांधी पर दबाव बनाया था कि वो सुप्रीम कोर्ट को पलटने वाला क़ानून लाएं.
फ़सीउर रहमान का दावा है कि उनके धर्म की भावना से ओत-प्रोत ज़िया उर रहमान अंसारी इस मामले पर इस्तीफ़ा देने तक को तैयार थे, राजीव गांधी को क़ानून लाने को तैयार करने में कामयाब रहे थे.
कांग्रेस में हर विचारधारा के लोग
हालांकि स्क्रोल न्यूज़ वेबसाइट को दिए एक इंटरव्यू में आरिफ़ मोहम्मद ख़ान कहते हैं कि ये सोचना ग़लत है कि राजीव गांधी के विचार बदलने में ज़िया उर रहमान अंसारी का हाथ था.
नरेंद्र मोदी सरकार ने साल 2017 में जब नया मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) बिल लाया तो उसके पक्ष में धुंआधार भाषण देने वालों में राजीव गांधी के क़रीबी रहे और बीजेपी के सांसद एमजे अकबर शामिल थे.
रशीद क़िदवई कहते हैं कि कांग्रेस में आज़ादी की लड़ाई से लेकर अब तब साम्यवादी विचारधारा से लेकर दक्षिणपंथी सोचवाले दोनों रहे हैं, जो आजतक क़ायम है. जहां कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने को लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया (तब वो कांग्रेस में थे) से लेकर राहुल गांधी के विचार अलग-अलग हो सकते हैं तो 1986 में जो हुआ उसे भी इस रोशनी में देखा जा सकता है.
वो कहते हैं, “अगर राजनीतिक सौदेबाज़ी की बात को सच भी मान लें तो कांग्रेस के हाथ से तबसे लेकर अबतक उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई दूसरे सूबे निकल गए हैं और कम से कम मुस्लिम तो उससे बहुत दूर हो चुके हैं.”
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