14 October 2022 published on BBC Hindi
नागपुर में जहाँ पाँच अक्तूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विजयादशमी और अपना स्थापना दिवस मना रहा था, उसी शहर में उसी दिन दलितों और नए-नए बौद्ध बने लोगों का एक विशाल समूह ‘अशोक विजयादशमी’ का आयोजन कर रहा था.
ग़ौर करने की बात ये भी है कि दिल्ली में जहाँ आम आदमी पार्टी के नेता और मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को हिंदू धर्म के देवी-देवताओं का अपमान करने के आरोप में इस्तीफ़ा देना पड़ा, वहीं नागपुर में ऐसा कोई विवाद नहीं हुआ. जबकि नागपुर में भी वही 22 प्रतिज्ञाएँ दोहराई गई थीं जो दिल्ली के कार्यक्रम का हिस्सा थीं.
ये बाबा साहब आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएँ हैं जिनमें से कुछ को भारतीय जनता पार्टी हिंदू देवी-देवताओं का अपमान बता रही है.
ये 22 प्रतिज्ञाएँ ‘धम्म दीक्षा’ का हिस्सा हैं जिन्हें डाक्टर भीमराव आंबेडकर ने लंबे विचार-विमर्श के बाद तैयार किया था, और जिनकी चर्चा महाबोधि सोसायटी के महासचिव को भेजी गई चिट्ठी में उन्होंने विस्तार से की है.
14 अक्टूबर 1956 को खुद बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद, आंबेडकर ने सैकड़ों लोगों को त्रिशरण और पंचशीला के पाठ के बाद ये 22 प्रतिज्ञाएँ दिलवाईं थीं जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश और दूसरे हिंदू देवी-देवताओं का नाम लेकर कहा गया कि वो न तो उनमें आस्था रखेंगे, न ही उनकी पूजा करेंगे. बुद्ध को विष्णु का अवतार न मानने की क़सम भी इस प्रतिज्ञा का हिस्सा थी.
मेले जैसा माहौल
‘अशोक विजयादशमी’ पर आंबेडकर के लाखों अनुयायी दुनिया के कोने-कोने से हर साल नागपुर में इकट्ठा होते हैं, शहर पहुँचने वाली सड़कों पर लोगों का हजूम दिखाई देता है,
चौदह एकड़ में फैले मैदान में जहाँ आंबेडकर ने धर्म परिवर्तन किया था, उस जगह को अब ‘दीक्षा-भूमि’ कहा जाता है, वहाँ एक मेले जैसा माहौल दिखता है.
किताबों से लेकर प्रतिमाओं की दुकानें हर तरफ़ सजी होती हैं, नुक्कड़ नाटक और दूसरे कार्यक्रमों का आयोजन होता है और बौद्ध धर्म की दीक्षा तीन दिनों तक लगातार जारी रहती है.
बिहार के कैमूर से आठ सौ किलोमीटर का सफ़र करके यहाँ पहुँची लछमिनिया मौर्य बताती हैं, “बीस साल पहले से ही सारा परब (पर्व), त्योहार, मनुवादी परंपरा को मन से त्याग चुकी हूँ. बौद्ध धर्म की जब बात सुने तो अच्छा लगा, तो हम इसको मानने लगे.”
पास के शामियाने में जारी मंत्रोच्चार के बीच स्टेज पर दर्जनों बौद्ध भिक्षु अपने गेरुए कपड़ों में बैठे हैं. बारी-बारी से लोगों का समूह भीतर पहुँचता है और क़तारबद्ध होकर मंच के सामने खड़ा हो जाता है, युवक-युवतियाँ, बुज़ुर्ग, मर्द, गोद में बच्चे लिए औरतें, यानी हर तरह के लोग हैं.
स्टेज पर बैठे भिक्षुओं में से एक, हाथ में माइक्रोफ़ोन थाम लेते हैं और लोगों को पाली भाषा में मंत्र दोहराने को कहते हैं, जिसके बाद 22 प्रतिज्ञाएँ दिलवाई जाती हैं.
जैसे ही एक समूह बाहर जाता है, उसकी जगह नई क़तार तैयार हो जाती है.
माया मौर्य ने अस्थायी काउंटर से अभी-अभी अपना वो सर्टिफिकेट हासिल किया है जिसमें उनका धर्म बौद्ध बताया गया है. इसके लिए फॉर्म उन्होंने धम्म दीक्षा की पंक्ति में खड़े होने से पहले भरा था जिसके बाद उन्होंने प्रतिज्ञाएँ ली थीं.
माया मौर्य को बाबा साहब की ये बात पसंद आईं कि “उन्होंने ‘छुआछूत, ऊंच-नीच, बड़-छोट (बड़े-छोटे) किसी में असमानता का भेदभाव नहीं रखा.”
ये पूछने पर कि क्या वो ये कहना चाहती हैं कि उनके साथ गांव में भेद-भाव का व्यवहार होता था, वो पूरा ज़ोर देकर कहती हैं, “हाँ जी, पहले हुआ था, बहुत हुआ था, हाल में भी हुआ है.”
दीक्षा दिलाने का काम धर्मगुरु भंते कुमार कश्यप के हाथों में था. कई दिनों से लगातार धम्म दीक्षा के काम में व्यस्त रहने की वजह से मुख्य गुरु भदंत नागार्जुन सूरेइ ससाई का गला बैठ गया है और तमाम कोशिशों के बावजूद वो हमसे बात नहीं कर पाए.
भंते कुमार कश्यप कहते हैं, “दो दिनों के भीतर दस हज़ार से अधिक लोग बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके हैं और ये सिलसिला दूसरे दिन यानी ‘अशोक विजयादशमी’ तक जारी रहेगा.”
पिछले 25-30 सालों से धम्म दीक्षा देने का काम कर रहे भंते कुमार कश्यप के मुताबिक़, ”वार्षिक आयोजन में हर भारतीय प्रांत और विदेशों तक से लोग आते हैं, लेकिन अब लोग अपने-अपने क्षेत्र में भी धम्म दीक्षा का कार्यक्रम चलाने लगे हैं.”
आप और बीजेपी की राजनीतिक खींचतान
दिल्ली में हुए दीक्षा के एक ऐसे ही कार्यक्रम में 10 हज़ार लोगों के शामिल होने का दावा किया गया था. अरविंद केजरीवाल सरकार में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम भी इस आयोजन में मौजूद थे. दीक्षा में दिलाई गई शपथ को बीजेपी ने हिंदू धर्म का अपमान बताया.
दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्त ने दीक्षा समारोह में राजेंद्र पाल गौतम के ‘नफ़रत फैलाने वाले’ कथित बयान के लिए ‘सज़ा दिए जाने की माँग की, अरविंद केजरीवाल को हिंदू विरोधी और आम आदमी पार्टी को देश विरोधी क़रार दिया गया.
बीजेपी की पुलिस में शिकायत के बीच राजेंद्र पाल गौतम ने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया है, हालांकि उन्होंने कहा था कि जिन शब्दों पर विवाद खड़ा किया जा रहा है वो 1956 से लगातार दोहराए जा रहे हैं, तब से जब से भीमराव आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था.
भीमराव आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को सुबह के तक़रीबन साढ़े नौ बजे त्रिशरण और पंचशील की पंक्तियों की पाली भाषा में पाठ के बीच बौद्ध धर्म ग्रहण किया. बाद में, बुद्ध की प्रतिमा के गले में उन्होंने फूलों की माला डाली और उसके सामने तीन बार झुके.
वहीं बाबा साहब ने एलान किया कि जो लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध मत अपनाना चाहते हैं वो त्रिशरण और पंचशील का पाठ करें, फिर उन्होंने उनसे ये 22 प्रतिज्ञाएँ दोहराने को कहा- जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश और दूसरे हिंदू देवी देवताओं का नाम लेकर कहा गया कि वो न तो उनमें आस्था रखेंगे, न ही उनकी पूजा करेंगे.
22 संकल्पों में पहले पाँच संकल्प हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित थे जिन्हें बौद्ध धर्म अपनाने वाले आज भी दीक्षा लेते समय दोहराते हैं.
प्रतिज्ञाओं की सूची
- मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
- मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
- मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
- मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ.
- मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ.
- मैं श्राद्ध में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूंगा.
- मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करूंगा.
- मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा.
- मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ.
- मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करूँगा.
- मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करूँगा.
- मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित परमितों का पालन करूँगा.
- मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दयालु रहूंगा और उनकी रक्षा करूँगा.
- मैं चोरी नहीं करूँगा.
- मैं झूठ नहीं बोलूँगा.
- मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा.
- मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा.
- मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करूंगा एवं सहानुभूति और अपने दैनिक जीवन में दयालु रहने का अभ्यास करूंगा.
- मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ.
- मैं दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ कि बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है.
- मुझे विश्वास है कि मैं (इस धर्म परिवर्तन के द्वारा) फिर से जन्म ले रहा हूँ.
- मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांत, शिक्षा एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करूंगा.
नरेंद्र मोदी सरकार के समाज कल्याण मंत्रालय के प्रकाशन में 22 संकल्पों की मौजूदगी के बावजूद, केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आने वाली दिल्ली पुलिस बीजेपी की शिकायत पर “मामले की जाँच कर रही है.”
राजनीतिक मामलों के जानकार, दिल्ली की घटना को गुजरात चुनाव से भी जोड़कर देख रहे हैं.
बहरहाल, दीक्षा ग्रहण करने के ठीक अगले दिन आंबेडकर ने मराठी भाषा में घंटे भर लंबा भाषण दिया जिसमें धर्म-परिवर्तन की वजह से लेकर, दीक्षा के लिए 14 अक्टूबर और उसका स्थान चुनने जैसी बातों का विस्तार से उल्लेख किया.
नागपुर को उन्होंने नाग लोगों का गढ़ बताया, वो नाग समुदाय जिसने बौद्ध धर्म को भारत भर में फैलाया और जिसकी आर्यों से संघर्ष की स्थिति रही थी.
आंबेडकर ने यह भी स्पष्ट किया था कि उन्होंने नागपुर का चुनाव इसलिए नहीं किया था क्योंकि वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का मुख्यालय है. आरएसएस के विरोध की चर्चा तब शायद हो रही हो जिसका जवाब आंबेडकर ने अपने भाषण में दिया था.
आरएसएस और बीजेपी आज उन्हें ‘महान विभूतियों’ में गिनती हैं, हालांकि मुंबई यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर प्रोफेसर भालचंद्र मुंगेकर जैसे कई लोग इसे ‘राजनीतिक तिकड़म’ मानते हैं.
महाराष्ट्र में कई राजनीतिक नेता ‘अशोक विजयादशमी’ को दीक्षा भूमि जाते हैं. इस बार वहाँ जाने वालों में केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी भी थे जो सुबह रेशिम बाग़ के आरएसएस मुख्यालय के कार्यक्रम में भी शामिल हुए थे.
आकाश बलवंत मून के दादा उन लोगों में से थे जिन्होंने आंबेडकर के सामने 22 प्रतिज्ञाएँ लेकर बौद्ध धर्म में प्रवेश किया था.
शोषितों और दलितों का बड़ा आयोजन
आकाश बलवंत मून कहते हैं, “बौद्ध धर्म अपनाने वालों में एक बड़ा वर्ग शोषित तबक़े से ताल्लुक रखता है. जिस तरह अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में लोग बड़े पैमाने पर ईसाई बन रहे थे. उसी तरह से अब जो शोषित हैं उनको समझ में आ गया है कि बाबा साहब ने हमें जो धम्म दिया है हम उसे ही अपनाकर विकास कर सकते हैं. ये भी सच है कि बाबा साहब अगर नहीं होते तो शायद बुद्धिज़्म का ये इमपैक्ट नहीं दिखता.”
आंबेडकर के मन में धर्म-परिवर्तन का ख़्याल अचानक से नहीं बल्कि दशकों से चल रहा था और नासिक ज़िले के येवला में हुए कॉन्फ्रेंस के बाद तो घोषणा-पत्र जारी करके एलान किया गया कि शोषित वर्ग हिंदू धर्म का त्याग करेगा.
दीक्षा के बाद दी गई स्पीच में आंबेडकर ने येवला प्रस्ताव का भी ज़िक्र किया जिसमें कहा गया कि “मैंने बहुत पहले प्रण लिया था कि मैं हिंदू पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा और मैंने इसे कल साबित कर दिया.”
अगले वाक्य में उन्होंने कहा, “मैं बेहद ख़ुश हूँ, मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ. मुझे महसूस हो रहा है मानो मुझे नर्क से आज़ादी मिल गई हो.”
मुंबई यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर प्रोफ़ेसर भालचंद्र मुंगेकर कहते हैं, “आंबेडकर का व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि वो उन पर उंगली उठाने की ग़लती नहीं कर सकते हैं और सबसे अहम ये कि राजनीतिक तौर पर वो परम आवश्यक हैं.”
अर्थशास्त्री और शिक्षाविद् भालचंद्र मुंगेकर आंबेडकर पर अथॉरिटी माने जाते हैं और उन्होंने ‘द एसेंशियल आंबेडकर‘ नाम की किताब भी लिखी है.
दिल्ली में गुरुवार को कांग्रेस सांसद शशि थरूर की क़िताब ‘आंबेडकर: ए लाइफ़’ के विमोचन के दौरान बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, “आंबेडकर को आइकन के तौर पर पेश करना एक राजनीतिक एजेंडा है जिसका मक़सद राजनीतिक फ़ायदे के लिए लोगों को संगठित करना है.”
धर्म परिवर्तन और बौद्ध धर्म में ‘वापसी’ (इसका प्रयोग आंबेडकर के कई समर्थक करते हैं) का सिलसिला महाराष्ट्र में सबसे अधिक जारी रहा और मुख्यत: तीन जातियों मांग, चर्मकार और महार इसके प्रभाव में आए, लेकिन भालचंद्र मुंगेकर के अनुसार, उत्तर भारत की उन बहुजन जातियों के भीतर भी जो अब तक हिंदू धर्म में बनी हुई हैं, आंबेडकर को लेकर अपार श्रद्धा है.
आरएसएस और बीजेपी का रुख़
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इस साल के विजयादशमी के सालाना भाषण में सामाजिक विषमता की बात करते हुए कहा कि “सामाजिक समता को लाए बिना वास्तविक और टिकाऊ परिवर्तन नहीं आएगा जिसकी चेतावनी पूज्य बाबा साहब आंबेडकर ने हम सबको दी थी”.
उन्होंने ये भी कहा कि “जब तक ‘सामाजिक स्तर पर मंदिर, पानी, श्मशान सब हिंदुओं के लिए खुले नहीं होते तब तक समता की बातें केवल सपने की बातें रह जाएंगी.”
‘भारत बौद्धमय करो’ नाम की एक मुहिम भी जारी है जिसका स्टॉल नागपुर की दीक्षा-भूमि में भी दिखा. उनके पर्चे में इस तरह के सवाल हैं – बहुजनों का धर्म कौन-सा है, बहुजनों को अपना धर्म बौद्ध ही क्यों लिखना चाहिए जिसके जवाब में कहा गया है कि सम्राट अशोक पिछड़ी जाति के थे और उन्होंने भारत को बौद्धमय बनाया था और देश का गौरव बढ़ाया था तो हमें भी इस तरफ़ क़दम बढ़ाना चाहिए.
उस स्टॉल पर बैठे हुए राजेश पाटिल कहते हैं, “महामारी के कारण अभियान दो साल पीछे चला गया है, लेकिन हमें इसे और तेज़ी देनी है.”
बहुजन मुद्दों पर ख़ास तवज्जो देने वाले ‘आवाज़ इंडिया’ टीवी चैनल के डायरेक्टर अमन संतोष कांबले का मानना है कि लोग बड़ी तादाद में हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपना रहे हैं, लेकिन एक तो जनगणना में जान-बूझ कर इस तथ्य को उजागर नहीं किया जाता और दूसरे लोगों में आरक्षण को लेकर भय है.
अमन संतोष कांबले कहते हैं, “ख़ामोशी की वजह ये हो सकती है कि लोगों को लगता है कि रिज़र्वेशन पर असर पड़ेगा. क्योंकि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं, जाति के आधार पर मिलता है.”
उत्तर भारत में दलितों की सबसे बड़ी नेता माने जानेवाली मायावती बौद्ध नहीं, हिंदू हैं हालांकि चंद सालों पहले उन्होंने कहा था कि अगर बहुजनों पर अत्याचार नहीं रुका तो वो धर्म-परिवर्तन कर लेंगी.
आकाश बलवंत मून के अनुसार, बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले दलितों और बहुजनों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति हिंदू धर्म में बने रहने वाले उनकी जाति के लोगों की तुलना में बेहतर दर्ज की गई है.
साल 2011 के जनगणना के अनुसार, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के भीतर साक्षरता की दर 81.29 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये 72.98 फ़ीसद है.
भारत में बौद्ध धर्म का अनुसरण करने वालों की तादाद साल 2011 में 84 लाख थी जिसमें से 87 प्रतिशत लोग धर्म-परिवर्तन करके बौद्ध बने हैं.
बौद्धों की काफ़ी जनसंख्या उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों और हिमालय के पास के इलाक़े जैसे लद्दाख में निवास करती है. ये लोग पहले से ही बौद्ध धर्म का हिस्सा रहे हैं.