Post of 6th March 2021

“ऐ मौजे दजला तू भी पहचानती है हम को
अब तक है तेरा दरिया अफ़साना खॉ हमारा”

“क़ाफला हेजाज़ मे एक हुसैन भी नही
गरचे है तेरा ताबेदार अभी गेसूये दजला व फेरात”

मोहम्मद बदिउज़्ज़मॉ साहेब ने लिखा है कि इक़बाल ने यह कह कर “पहचानती है हम को” इस्लामी तारीख़ मे एक बहुत बडे फैसला कून जंग की याद ताजा कर दी है।

जब ख़लीफ़ा उमर रज़ी अल्लाह अंहो के वक्त मे साद बिन वक़ास (र०अं०) इराक़ से ईरान पर हमला करने बढ़े तो रास्ते मे दरिया दजला को पार करना था मगर ईरानियों ने सारे पुल तोड़ दिये थे।साद रज़ी अल्लाह अंहो ने दजला के उस हिस्सा की तालाश की जहॉ पानी कम था और घोड़ा दजला के उस हिस्सा मे डाल कर पानी की लहरों का मोक़ाबला कर दरिया पार कर लिया।

मुस्लिम के दजला पार करने के कबल शाह ईरान अपने लोगो और दौलत को लेकर दारूलसलतन्त मदाईन से भाग गये और बेगैर लडाई लडे 637 AD मे मुसलमानो का ईरान की राजधानी मदाईन पर कब्ज़ा हो गया।

ईकबाल के दूसरे शेर पर बदिउज़्ज़माँ साहेब लिखते हैं फेरात भी दजला (Tigris) दरिया के तरह इराक़ की एक दरिया है जो तुर्की से निकलती है और मूल्क शाम होते हुऐ इराक़ मे दाख़िल होने के बाद बग़दाद के पास बहती है। तुर्की मे उस का नाम फेरात है मगर मूल्क शाम हो कर इराक़ मे आती है तो इस का नाम Euphrates हो जाता है। फेरात दरिया का भी इस्लामी तारीख़ से वास्ता है।

“क़ाफ़ला हेजाज़” से मूराद मिल्लते इस्लामी है जिस मे एक शक़्स भी ईमाम हुसैन के तरह हक़ के ख़ातिर बातिल के खेलाफ सर पर कफ़न बॉधे ईक़बाल को नज़र नही आता। मगर दजला और फेरात आज भी मिल्लते इस्लामी को ल्लकार रही हैं।

#NOTE: यह पोस्ट Afreen Noor साहिबा की वजह कर लिखा है क्योकि कल मेरे पोस्ट पर उन को ईकबाल का यह दो शेर बहुत पसंद आया था।