डाक्टर मोहम्मद ख़लील
मोहम्मद ख़लील के बुज़ुर्ग शेख़ अमानत हुसैन बिहार के शाहाबाद के बक्सर के जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह, जो 1857 की ग़दर के मशहूर इंक़लाबी लीडर थे के साथियों में थे।
ग़दर के हंगामे के बाद शेख़ अमानत हुसैन अपने दो साथियों के साथ गाँव महरथा, थाना कांटी, ज़िला मुज़फ़्फ़रपुर चले आये। महरथा से दस-बारह मील दूर हरदी एक ज़मिनदार हुआ करते थे जो हरदी के बाबू के नाम से मशहूर थे। उन्होंने शेख़ अमानत हुसैन की बहुत बड़ी मद्द किया।
हरदी के बाबू ने शेख़ अमानत हुसैन को एक मकान और सत्तर बिगहा ज़मीन दिया और अपने बच्चों की तालीम व तरबियत की निगरानी शेख़ साहेब के सुपुर्द कर दिया।शेख़ साहेब के दो साथी, एक हरचंदा चले गये और दूसरे चमपारण में आबाद हुए, इन दोनों की औलाद अभी मौजूद हैं।
शेख़ अमानत हुसैन के पोता शप्क़क्त हुसैन थे जो मोहम्मद ख़लील के वालिद थे। मोहम्मद ख़लील के वालिद, शप़्कक्त हुसैन सीतामढ़ी के शिवहर राजा के बच्चों को फ़ारसी, उर्दु पढ़ाने के लिए बहाल हुए।
मोहम्मद ख़लील की पैदाइश 1890 में हुई और वफात 30 सितम्बर 1982 को वैशाली ज़िला के थाना महुआ में हुआ।
पढा लिखा खांदान होने की वजह कर मोहम्मद ख़लील ने मार्च 1915 मे गवर्नमेंट ऑफ इन्डिया के पटना के टेमपुल मेडिकल स्कूल से एल-एम-पी पास किया। उस वक्त बिहार और उड़ीसा एक सूबा था मगर पूरे सूबे में कोई मेडिकल कालेज नहीं था। यही टेमपुल मेडिकल स्कूल बाद में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कालेज, पटना के नाम से क़ायम हुआ, जो आज पटना मेडिकल कालेज है।
इसी स्कूल में मोहम्मद ख़लील को दूसरे साल से स्कॉलरशिप मिलता रहा और घर से महीन दो महीना पर 25-30 पैसा आ जाता था जो उन के लिए काफ़ी था। वह कहते थे कि शाम को पटना के सब्ज़ी बाग़, पटना मार्केट के पास रोड किनारे लोग सामान बेचते थे और वह दो-तीन दिन पर वहॉ जाकर लालटेन मे केरासन तेल भरवाते थे, कुछ काग़ज़ ख़रीदते थे और कभी कभार कुछ सूखा मेवा जो वहॉ पर बिकता था वह ख़रीदा करते थे।
इस स्कूल से कामयाब होने पर मोहम्मद ख़लील को 5 अप्रैल 1915 को सब असिस्टेंट सर्जन का सर्टिफिकेट जारी किया गया जिस का रजिस्ट्रेशन नम्बर 1169 है। डाक्टरी पास करने के बाद हर डाक्टर को बिहार और उड़ीसा कौंसिल ऑफ मेडिकल से रजिस्ट्रेशन कराना ज़रूरी था और मोहम्मद ख़लील का मेडिकल रजिस्ट्रेशन नम्बर 398 था।
अप्रैल 1915 में डाक्टरी पास करने के बाद उन को मुज़फ़्फ़रपुर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में मेडिकल आफिसर के पोस्ट पर नौकरी मिली और 36 साल की नौकरी में वह मोतीपुर, महीनार पुर, बेलसंड, चक सिकंदर, लालगंज और महुआ में मेडिकल आफिसर रहे। वह मार्च 1951 में महुआ अस्पताल से रिटायर हुए और वही बस गये। महुआ हासपिटल के सामने मकान बना कर बाक़ी ज़िंदगी प्रैक्टिस करते रहे।
डाक्टर मोहम्मद ख़लील की शादी सीतामढ़ी के गॉव टिकौली में शेख़ सिद्दीक़ी ख़ानदान में हुई। उन के अहिल्या बीबी नफ़ीसा के ख़ानदान के बुज़ुर्ग शेख़ मोहम्मद दाऊद मुग़ल बादशाह जहांगीर के वक्त में दिल्ली से आमिल बना कर भेजे गये थे और वह दानी में बस गये।
डाक्टर खलील को अपने वालिद और बड़े भाई शेख़ अमीर हसन के तरह घोड़ा का बहुत शौक़ था, फ़र्क यह था कि उन के वालिद ज़ैन सवारी करते थे मगर डाक्टर खलील और उन के बड़े भाई तांगा रखा करते थे और घर में साईज़ था।
तालीब ईल्मी के ज़माने मे डाक्टर खलील बहुत अच्छा फुटबॉल खेलते थे और नौकरी में आने पर लोकल बच्चों में रेफ़री रहा करते। बैडमिंटन और ताश खेलने का भी शौक़ था।
पेशा के लिहाज़ से डाक्टर होने के बावजूद उर्दु से गहरी दिलचस्पी रखते।वह उर्दु रसालाह बहुत मंगाते थे जैसे मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का “अलहिलाल”, नेयाज़ फ़तेहपुर का “निगार” शाहिद अहमद देहलवी का “साक़ी”, राशिद अल खैरी का “इसमत”, ख़्वाजा हसन नेज़ामी का “मनादी”, बिजनौर का “मदीना” और “ग़ुंचा” वग़ैरह।
डाक्टर खलील के चार बेटा और पॉच बेटी थी और अपनी ज़िन्दगी मे परपोता और पर नवासा-नवासी को देखा। आज कल उन के बहुत से नाती-नवासी, पोता-पोती, और पर पोता, पर नवासा विदेश में कार्यरत है या बस गये हैं।
उन के सब से बड़े लड़का मोहम्मद बदीउज़्ज़मॉ थे जो बिहार सरकार में नौकरी कर रिटायर किया और रिटायरमेंट के बाद आख़री तीस साल मे सोलह (16) किताबें इक़बाल पर और दो (2) किताबें दूसरे मौज़ू पर लिखी जो सैकड़ों साल इक़बालियात के शौक़ीन के लिए एक नई खोज है।