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क़ुरआन पढ़ना
शाह वली ऊल्लाह साहेब लिखते है “रसूल अल्लाह ﷺको क़ुरआन का मुअज्ज़ा अता हुआ, उसी तरह से रसूल अल्लाह ﷺ को जो शरीयत अता हुई थी वह भी मुअज्ज़ा थी।” क़ुरआन मुसलमानों का मुकम्मल कानून हयात और क़ानून शरीयत मोहम्मदी है।
सूरह अल वाक़या الواقعہ (56) के आयत (78-80) में अल्लाह ताला फ़रमाते हैं कि “बेशक क़ुरआन बहुत बड़ी अज़मत वाला है, जो एक महफ़ूज़ किताब में दर्ज है, जिसे सिर्फ़ पाक लोग ही छू सकते हैं, यह रब्बुल आलमीन की तरफ़ से उतरा है।” यहॉ महफ़ूज़ किताब से मुराद “लौह महफ़ूज़” है और पाक लोगों से मुराद “फरिशते” हैं।
सूरह अल राअद الرعد (13) के आयत 39 में इसे “उम्मूल किताब” कहा गया है। उम्मूल किताब से मुराद “असल किताब” है। अल्लाह ताला कहते हैं कि “हम ने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझो और यह हक़ीक़त में उम्मूल किताब है।”
नबी करीम ﷺ फ़रमाते हैं कि “अल्लाह ताअला क़ुरआन के ज़रिए बहुत से लोगों को बुलंदियाँ अता करता है और इसी की वजह से दूसरों को पस्ती में धकेल देता है।” क़ुरआन पर अमल का बदला बुलंदी और उस के इंकार का नतीजा ज़िल्लत और पस्ती है।क़ुरआन पढ़ना एबादत में शामिल है।
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बंदगी करना
दीन अरबी ज़बान में नेज़ाम ज़िन्दगी या तरीक़े ज़िन्दगी के लिए इस्तेमाल होता है। क़ुरआन की इस्तलाह में “इस्लाम” उस दीन हक़ का नाम है जो अल्लाह ने इंसान की ज़िन्दगी और एबादत के तरीक़ा के लिए नाज़िल किया है।
क़ुरआन के सूरह अल मायदह الما ئدہ )5) रूकु 1 आयत 3 में अल्लाह ताला फ़रमाते है कि “आज मैं ने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए मोकम्मल कर दिया और अपनी नेमत तुम पर तमाम कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से क़बूल कर लिया।” इन आयात मे नेमत तमाम कर देने से मुराद “नेमत हिदायत” को मुकम्मल कर देना है और इस्लाम को दीन की हैसियत से क़बूल कर लेने का मतलब है कि इंसान अल्लाह की अताअत और बंदगी करे।
अपने को पूरी तरह अल्लाह की बंदगी में दे देने से मुराद है कि आदमी अल्लाह की बंदगी के साथ किसी दूसरे की बंदगी न शामिल करे, अपने सारे मामलों को अल्लाह ताला के सुपुर्दे कर देना, उस की दी हुई हिदायत को अपनी पूरी ज़िंदगी का क़ानून बना लेना, किताब अल्लाह की पैरवी करना, क़ुरआन के अहकाम से मुँह न मोड़ना, अल्लाह ताला ने जिस काम का हुक्म दिया है उन को पूरा करना, जिन कामों से मना किया है उस से बचना, क़ुरआन मे जो क़िस्सा या मिसाल दिया गया है उस से इबरत और नसीहत हासिल करना।
यही सारी चीज़ें दीन इस्लाम की असल हक़ीक़त और उस की रूह है।इस तरह दीन इस्लाम की हक़ीक़त यह क़रार पाई केह बंदगी, एबादत और अताअत का मुस्तहक़ वहदहु ला शरीक के सिवा और कोई नहीं, यानि अल्लाह के सेवा कोई बंदगी के लायक़ नही।
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एबादत करना
एबादत का लवज़ अरबी ज़बान में तीन नामों में लिया जाता है, (1) पूजा और प्रस्तीश (2) अताअत और फरमांबरदारी और (3) बंदगी और ग़ुलामी। सूरह अल फातिहा के “इया कनाबूदु” (اِیؔاک نعبُدُ) यानि “हम तेरी ही अताअत करते है” में अताअत से यह तीनों मानी मुराद है।
अल्लाह ताला ने क़ुरआन की सूरह यूनुस (10) के आयत 3 में साफ़ लव्ज़ो में कहा है कि “यही अल्लाह तुम्हारा रब है, सो तुम उस की एबादत करो (ذٰلِکُم اللہ ربُؔکم فا عبُدُوۂ)”
सूरह मोहम्मद (47) के आयत 19 में अल्लाह ताला ने रसूल अल्लाह ﷺको मुख़ातिब कर आम आदमीयों को कहा है कि “सो एय नबी खूब जान लो के अल्लाह के सिवा कोई एबादत का मुसतहक़ नही।”
जीन और इंसान के लिए एबादत से मुराद नेमाज़, रोज़ा, तसबीह, तहलील या इस्तग़फार ही नहीं है बल्कि अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की प्रसतीश या फरमांबरदारी नहीं करना भी शामिल है।
नेमाज़ पढ़ने से इंसान में खुदा परस्ती और खुदा तरसी की आदत बन जाति है, रोज़ा इंसान के नफ़्सी खाहिशको को मारता है और इंसान को अल्लाह के क़रीब करता है, ज़कात देने से इंसान में दूसरों की मद्द करने और क़ुरबानी का जज़्बा पैदा होता है, इस्तग़फार से गुनाह माफ़ होता है।
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दुआ माँगना
क़ुरआन में एबादत और दुआ को साथ इस्तेमाल किया गया है। क़ुरआन की सूरह अल मुमीन (40) की आयत 60 में अल्लाह ताला इरशाद फ़रमाते हैं कि “तुम्हारा रब कहता है, मुझे पुकारो मैं तुम्हारी दुआ क़बूल करूँ गा। जो लोग घमंड में आ कर मेरी एबादत से मुँह मोड़ते हैं, ज़रूर वह ज़लील और खार हो कर जहन्नुम में दाखिल होंगें।”
इस आयत से यह बात ज़ाहिर हो जाती है के दुआ एबादत की जान है और अल्लाह से दुआ माँगनी उस की बंदगी है और उस से मुँह मोड़ना घमंड है।
शरीयत खुदावंदी हम लोगों को अल्लाह ताअला की बंदगी करना, इबादत करना और दुआ माँगना सिखाता है। दुआ माँगा किजये, क़बूल होने की फ़िक्र नहीं किजये। दुआ मांगने वाला जो मांगता है अल्लाह ताअला उसे दे देता है, या उस पर आने वाली किसी बला व आफ़त को दूर फ़रमा देता है, या उस की दुआ की आखिरत के लिए ज़ख़ीरा बना देता है।
(डा॰ मोहम्मद सिमाब ज़मॉ)