Shehaab Zafer– 7th April 2020 on Facebook. Published in the magazine “Sukhanwar”, Bhopal, India.

मेरी फेसबुक पोस्ट पर आधारित “मानव सभ्यता के विकास की कहानी” जो भोपाल की मशहूर पत्रिका “सुखनवर” में नवंबर से किश्तवार लगातार प्रकाशित हो रही है। उसी का चौथा भाग “मिस्र की सभ्यता” के बारे में एक लेख लिखते समय मिस्र की सभ्यता के कई अनछुए पहलुओं से भी गुजरना हुआ। हालांकि ये पहलू पत्रिका के लिहाज से अनुपयुक्त हैं इसलिए पत्रिका के लिए लिखे गए लेख से इतर कुछ जानकारियों को आप सबसे साझा करने का मन बना रहा हूं । अगर इसे पढ़ने के बाद आपको देजा वू जैसी फीलिंग आए तो लगभग 4000 वर्ष पुरानी इस कथा के अज्ञात हीरोज को शांति से स्मरण कर लीजिएगा….

प्राचीन मिस्र के दस्तावेज़ों का अध्ययन करते समय मालूम हुआ कि वहां के निवासी अपनी ज़िन्दगी में काम को कितना महत्व देते थे वास्तव में हर व्यक्ति जो जिस भी काम के उपयुक्त होता था उस काम को अंजाम देने में उसे गर्व की अनुभूति होती थी। वो जो भी काम करते थे उसमें अपने समाज के लिए कुछ रचनात्मक कार्य करने का बोध अवश्य समाहित होता था तथा कोई काम छोटा नही समझा जाता था।

पिरामिड और इस तरह की अन्य भव्य संरचनाओं के निर्माण को दो तरह के मजदूरों द्वारा निर्मित किया जाता था एक वो जो कम्युनिटी सर्विस के रूप में समाज और राजा के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में अपनी क्षमता के अनुरूप में अपना योगदान समझ कर काम करते। वहीं दूसरी ओर स्किल्ड लेबर्स होते थे जो बाकायदा एक निर्धारित वेतन पर काम किया करते थे।

मिस्र की सभ्यता के अनुक्रम में राजा से लेकर प्रजा तक सभी इस बात पर एकमत रहते थे कि इस तरह की जो बड़ी और भव्य संरचनाएं बन रही हैं वो उनके अपने तथा राज्य दोनों के विकास और सफलता के लिए बहुत अहम हैं।

और इस विचारधारा के चलते उस समाज में इस तरह के भव्य इमारतों, मकबरों पिरामिड जैसी संरचनाओं की प्रचुरता देखने में आई और धीरे धीरे वह समाज में एक सोशल स्टेटस की तरह बन गई और उनकी संस्कृतियों को समृद्ध भी करती गई।

इन राजाओं का मुख्य कार्य ईश्वरीय नियमों जिनको उन्होंने “मआत’ का नाम दिया था उनको कार्यान्वित करना तथा जनता के बीच सही संतुलन बिठाने का ही रहता था। और इस के लिए उन्हें ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट भी करना पड़ता था। यानी ये ख्याल रखना होता था कि समाज के सबसे निचले तबके का भी पूरा ध्यान रखा जाए उसकी जीविका का साधन सुरक्षित रखा जाए , राज्य की सीमाएं पूरी तरह सुरक्षित रहें और राज्य और देवताओं के सभी नियमों का पालन अच्छी तरह किया जाए।

इसके लिए आवश्यक होता था कि राज्य के हर व्यक्ति के पास काम हो जिस से उसे सम्मानजनक ढंग से जीने का हक मिल सके । फैरो रामसेस III के समय में राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए राज्य के पास संसाधनों की कमी होने लगी । ये कमी व्यापार और जनता के टैक्स दोनों आेर से देखने में आती प्रतीत होती है। इन परिस्थितियों में इस भव्य साम्राज्य को चलाने के लिए उचित संसाधनों में कमी आ गई ।

हालांकि रामसेस III ने फिर भी अगले 20 वर्षों तक अपनी जनता और साम्राज्य के लिए जो कुछ बन पड़ा किया लेकिन जब उसके शासन काल का 30 वां साल निकट आया तो सम्राट की इस उपलब्धि को राज्य का सबसे बड़ा महोत्सव मान कर उसे एक भव्य जयंती का रूप दे कर मनाने का प्रस्ताव पास किया गया। समस्या केवल ये थी कि राज्य के पास इस भव्य आयोजन के लिए पहले की भांति प्रचुर संसाधन नहीं रह गए थे।

चूंकि मामला सम्राट की अस्मिता से जुड़ा हुआ था इसलिए इस भव्य आयोजन को टाला भी नहीं जा सकता था इसलिए विचार ये किया गया कि राजा से नीचे की अनुक्रम में जो लोग हैं क्यों ना उन्हें ही बलि का बकरा बना दिया जाए । और ये लोग कोई और न हो कर साम्राज्य में सबसे अधिक वेतन पाने वाले मकबरे बनाने वाले कारीगर ही थे ये कारीगर मृत्यु के बाद राजाओं और उनके बड़े ओहदेदारों के अंतिम प्रवास बनाने का अहम काम करते थे अतः इन कारीगरों की गिनती राज्य के सबसे सम्मानजनक और सबसे अधिक वेतन पाने वाले लोगों में होती थी ।

बहरहाल समय बीतता गया और रामसेस तृतीय के शासन के 30 वर्ष पर आयोजित होने वाले विशाल और भव्य आयोजन के होने से 3 वर्ष पहले 1159 ईसा पूर्व में इन कारीगरों के वेतन एक महीने के लिए रोक दिए गए तो अनिश्चितता का माहौल पैदा हो गया। लोगों में क्षोभ भी उत्पन्न हुआ बाद में समझौते के तहत उनका वेतन मक्का की बालियों के रूप में देने पर विचार हुआ। हालांकि ये समस्या का पूर्ण समाधान बिल्कुल नहीं था । बजाय इसके कि राजा ये देखते कि इनकी तनख्वाह ना दे पाने के लिए वस्तुतः कौन सी परिस्थितियां ज़िम्मेदार हैं।

राजा के अधिकारी उसी तरह राज्य के इस भव्य आयोजन की तैयारी में व्यस्त रहे “दैर एल मदीना” नामी जगह जहां ये क्राइसिस उभरी थी वहां कुछ दिनों बाद फिर इन लोगों के वेतन का भुगतान बंद हो गया और अब ये स्थिति बहुत भयावह हो गई थी जब इन लोगों के सामने भुखमरी जैसी स्थिति से गुजरने की नौबत आ गई। अंत में जब हालात में कोई सुधार नहीं दिखा तो सभी कर्मियों ने 18 दिन तक अपने वेतन का इंतजार करने के बाद और अधिक इंतजार करने से इंकार कर दिया और अपने अपने औज़ार रख कर सामूहिक रूप से वेतन भुगतान की मांग को लेकर “थेब्स” की ओर मार्च कर दिया ।

थेब्स एक व्यस्ततम सिटी सेंटर जैसी जगह थी जहां सरकार के आला अधिकारी भी रहते थे । वहां के अधिकारियों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए क्योंकि तब तक इस तरह की हड़ताल जैसी स्थिति का उस समाज में कोई अस्तित्व ही नहीं था। अधिकारियों के गुमान में ये नहीं था कि उनके अधीन काम करने वाली जनता कभी उनसे ही सवाल करने आ जाएगी वो भी एक संगठित मार्च की शक्ल में ऐसा शायद उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

बहरहाल फंड तो थे नहीं बातचीत के कई दौर चले हड़ताली लोगों को बहलाने के लिए काफी कुछ किया गया कहीं पेस्ट्रीज बांटी गई कहीं कुछ और तरीका अपनाया लेकिन यहां इन मजदूरों की आजीविका का सवाल था और राज्य इन्हें इनकी आजीविका देने में विफल रहा था इसलिए इन कामगारों ने ये फैसला किया कि जब ईश्वरीय विधान “मआत” का सम्मान स्वयं राजा नहीं रख सके तो उनके लिए अब ये महत्व नहीं रखता कि वो उनका राजा रहे या ना रहे । इस तरह संभवतः विश्व की पहली कामगार हड़ताल ने आने वाले दिनों में समाज से राजाओं के बुलंद इकबाल को मानने से इंकार कर दिया और जैसा कि प्रकृति नियम है कि हर चीज का ज़वाल होना है तो भव्यता की मिसाल दिए जाने वाले इन राजाओं और उनके साम्राज्य का पतन या सभ्यताओं का ह्रास भी लगातार होने लगा।

दर असल राजा और प्रजा के बीच की ये दूरी जब बढ़ती है जब जब प्रजा के हकूक की बलि चढ़ाई जाती है तो उस साम्राज्य का पतन सुनिश्चित होता है । ये कहानी ना केवल सच है बल्कि आने वाले हर समय में हर राज्य हर साम्राज्य हर देश के लिए एक नसीहत एक नजीर बन सकती है । आप भी अपना सच इस कहानी में जरूर तलाश कीजिएगा।